समेटा खुद को इस तरह की ख्वबों को घुटन होती है

जो मुस्करा दूँ कभी कभार तो आंखे अक्सर नम होती है

छुपा रख्खा है तुमको आपने आइने में कहीं

तुम्हारी नज़र अक्सर मुझ पर होती है

जो हस दिया तेरी महफ़िल में कभी सारे ज़माने को जलन होती है

समेटा खुद को इस तरह की ख्वबों को घुटन होती है

जब कहता हूँ तुमसे मिलो एक बार तुम्हारे चहरे पर हँसी कम नहीं होती है